Tuesday 31 May 2016



हिमालय पर्वत श्रंखला की एक दुर्गम्य कन्दरा में,

"आह! मुक्ति, स्वतंत्रता, स्वायत्ता।।। अनेकों वर्षों के इस भीषण श्राप से मुक्ति।
आखिर मेरे शत्रुओं के बल और संधि-शक्ति के आगे जब मैं असफल हुआ था, नहीं नहीं जब मुझसे छल किया गया था, और मुझे अनंतकाल के लिए इस श्राप में धकेला गया था, तब स्वयं मुझे भी ज्ञात नहीं था की मेरी मुक्ति का मार्ग क्या है?

आज भी ऐसा क्या हुआ की इतनी शक्तिशाली बाधायें भंग हो गयी, किसने किया, कैसे किया और क्यों किया ये सब? कौन है जिसका हित मेरी मुक्ति में छुपा हुआ है?

इसके बारे में बाद में विचार करूँगा। अभी मुझे सर्वप्रथम अपने शत्रुओं के बारे में जानकारी एकत्रित करनी होगी, अवश्य उन्होंने मुझ पर नजर रखने के लिए किसी प्रकार के दूत को नियुक्त किया होगा। बहुत प्रयत्न किया उस कपटी कालजयी ने , और उस बालक कालदूत ने भी मेरे साथ छल किया, वरना आज आर्यावर्त ही नहीं वरन् समग्र पृथ्वी पर कुक्षि की विजय पताका फहरा रही होती।

मुझे मिलने वाले संकेतों के अनुसार कालजयी इस पृथ्वी पर नहीं है, परंतु कालदूत के संकेत मुझे प्राप्त हो रहे हैं। और-और मुझे कालजयी की शक्तियों का भी आभास हो रहा है।"

तभी एक तीव्र प्रकाश से वह कन्दरा भर जाती है। और महादेव वहां प्रकट होते हैं।

कुक्षि- "प्रणाम महादेव। विषपुत्र कुक्षि का प्रणाम स्वीकार करें।"

महादेव- "उत्तम पुत्र कुक्षि। हमें आशा है की अब तुम अपने ध्वंस्कारी विचारों को त्याग कर पृथ्वी के संचालन में सहायक सिद्ध होगे।"

कुक्षि- "अवश्य प्रभु। हे महादेव मैं आपके पुत्र समान हूँ, मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ।"

महादेव- "पूछो वत्स।"

कुक्षि- "महादेव आप तो स्वयं नीलकंठ हैं, आपके स्वयं हलाहल का पान किया है, समस्त विषधरों में श्रेष्ठ हैं आप। आप ही बताइये क्या कालजयी ने जो मेरे साथ किया वो न्यायोचित था?"

महादेव- "वत्स कुक्षि। हमें ज्ञात है की जो व्यव्हार देव कालजयी और महात्मा कालदूत ने तुम्हारे साथ किया था, वह न्यायोचित नहीं था। परंतु तुमने भी अपनी शक्तियों का न्यायसंगत प्रयोग नहीं किया था। मैंने इस पृथ्वी के हित के लिए तुम्हें "प्रथम विषधर" चुना था, पर तुमने अपनी शक्तियों से सृजन नहीं अपितु प्रलय को महत्त्व दिया, तुम इस पृथ्वी के आस्तित्व के लिए ही संकट बन गए थे वत्स।"

कुक्षि- "उत्तम महादेव। एक निःशस्त्र योद्धा को रणक्षेत्र से छलपूर्वक बंदी बनाने वाले उस कपटी कालजयी को 'देव' की उपाधि से विभूषित किया गया। और उस बालक को जिसे अपने हित-अहित का भान भी नहीं है उसे आप 'महात्मा' का सम्बोधन दे रहे हैं।"

महादेव (क्रोधित स्वर में) - "कुक्षि! देव कालजयी अब विषधरों के प्रधान रक्षक हैं, उन्हें सम्मान देना तुम्हारा कर्तव्य है। और वो बालक कालदूत एक महायोद्धा है। मैं प्रस्थान से पूर्व तुम्हे आगाह करता हूँ, अगर इस बार पुनः तुम सृष्टि के विरुद्ध गए, तो तुम्हारी माता पार्वती की ममता भी तुम्हे महादेव के क्रोध से नहीं बचा पायेगी।"

कुक्षि- "क्षमा महादेव क्षमा, मैं आपके पुत्र समान हूँ, आपने ही मुझे 'प्रथम विषधर' चुना मुझे क्षमा कर दीजिये। परंतु बताइये क्या मुझे मेरे साथ हुए अन्याय का प्रतिकार करने का अधिकार नहीं है। क्या 'प्रथम विषधर' का आस्तित्व इस सृष्टि से मिट जाना उचित है? क्या स्वयं महादेव द्वारा रचित 'प्रथम विषधर' इस समग्र विश्व के लिए मात्र एक स्याह भूतकाल बन कर रह जायेगा?"


महादेव- " पुत्र कुक्षि! हमें सब ज्ञात है, और तुम इतने शक्तिशाली हो की अपने अस्तिव की रक्षा स्वयं कर सकते हो। बस मैं इतना कहना चाहता हूँ की पुनः अपनी शक्तियों का अनुचित प्रयोग मत करना। परंतु तुम अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी आस्तित्व रक्षा हेतु कर सकते हो।जाओ पुत्र और इस धरती पर अपनी महानतम् शक्तियों का प्रयोग मानव कल्याण हेतु करो।"

कुक्षि- "धन्यवाद महादेव"

महादेव- "पुत्र कुक्षि, सदैव प्रसन्न रहो। हमारा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है।"


और महादेव वहां से चले जाते हैं।

कुक्षि- "तो वो कपटी कालजयी 'देव' बन गया है, और अब देवलोक में ही उसका निवास है। मुझे मिले श्राप के कारण मेरी शक्तियाँ केवल पृथ्वीलोक तक ही सीमित हैं। और महादेव भी मुझे समझा कर गए हैं। परंतु कुक्षि अपना प्रतिशोध लेकर रहेगा। कुक्षि के अपने साथ हुए छल का बदला लेकर रहेगा, कालजयी का आस्तित्व देवलोक में सही परंतु पृथ्वीलोक पर नहीं रह पायेगा। कुक्षि मिटा देगा कालजयी के हर सृजन को, ध्वंस कर देगा कालदूत की समयसंधि का, ध्वंस होगा कालजयी के उस सृजन का जिसका नाम है नागराज और मटियामेट होगा विषधरों का शक्तिकेंद्र नागद्वीप।"

कालजयी बचा सकता है तो बचा ले अपना

                "आस्तित्व"

क्योंकि आ रहा है 'प्रथम विषधर' कुक्षि।

कुक्षि- "अब मुझे सर्वप्रथम कालदूत और नागद्वीप को ढूँढना होगा, अवश्य ही कालदूत और नागराज, नागद्वीप पर ही होंगे। मैं अभी भी कालदूत की संधि ऊर्जा का आभास कर सकता हूँ।"

और कुक्षि उसी गुफा में बर्फीली जमीन पर बैठ जाता है, और अपना ध्यान केंद्रित करता है।

कुक्षि- "मिल गया मुझे कालदूत का पता मिल गया। पर यह क्या कोई और क्षीण शक्ति मेरी ऊर्जा किरणों का पीछा कर रही है। इसका मतलब है की मेरा प्रतिकार करने वाली शक्तियों का आस्तित्व भी वर्तमान युग में है। अब मुझे अभी सबके सामने नहीं आना है, पहले मुझे वर्तमान युग की शक्तियों का ज्ञान लेना होगा।"

और कुक्षि अपनी साधना से उठ जाता है। और हिमालय की उसी कन्दरा के मुंह को एक बड़ी शिला से ढँक देता है।

कुक्षि- "अब यही मेरा गुप्त केंद्र होगा जहाँ से प्रारम्भ होगा एक महायुद्ध जो मिटा देगा कालजयी और उसके अंश का आस्तित्व।"


स्थान- वेदाचार्य भविष्य धाम, महानगर।

भविष्यधाम के एक अंदरूनी कक्ष में वेदाचार्य अपनी साधना में लगे हुए हैं।

वेदाचार्य- "आह! ये...ये असंभव है। इतनी प्रबल ऊर्जा वो भी पृथ्वी पर असंभव। अवश्य ये कोई पराशक्ति है जो पृथ्वी की नहीं है। मुझे इस ऊर्जा का पीछा करना होगा।"

और वेदाचार्य अपनी रुद्रमाला को गले से निकाल कर अपने दोनों हाथो में ले लेते हैं।

वेदाचार्य- "ॐ प्रबल ऊर्जाय संधानाय आह्वाहणं करोमि यत्।"

इसी मन्त्र के साथ वेदाचार्य का सारा शरीर एक विशेष प्रकाश से घिर जाता है और उनकी अंधी आँखें चमकने लगती है, और आँखों से प्रकाश-किरणे फुट पड़ती हैं। और वेदाचार्य का शरीर हवा में उठने लगता है।

वेदाचार्य- "अरे यह ऊर्जा तो नागद्वीप की ओर जा रही है। अर्थात इस ऊर्जा का लक्ष्य नागद्वीप ही है। मुझे इस ऊर्जा के और समीप जाना होगा।"

तभी वेदाचार्य की चीख निकल उठती है, और हवा में ठहरा हुआ उनका शरीर धम्म से नीचे गिर जाता है।

वेदाचार्य- "आह! ये असंभव है मात्र किसी ऊर्जा के समीप जाने से ही मुझे इतना घातक वार कैसे लग सकता है।"

तभी वेदाचार्य की चीख सुनकर भारती भागती हुई अंदर आती हैं।

भारती- "क्या हुआ दादाजी, आप चीखे क्यों?"

वेदाचार्य- "भारती तुम साधना-कक्ष में क्या कर रही हो, तुम्हे ज्ञात है न की साधना-क्षेत्र में तुम्हारा प्रवेश निषेध है?"

भारती- "मुझे ज्ञात है दादाजी। परंतु मैं आपकी चीख सुनकर रुक नहीं पायी। i am sorry dadaji."

वेदाचार्य- "कोई बात नहीं भारती, चलो बाहर चलते हैं।"

और भारती, वेदाचार्य को सहारा देकर उठा लेती है, और दोनों कक्ष के बाहर आने लगते हैं, तभी भारती का ध्यान वेदाचार्य की रूद्र-माला पर जाता है। और वो उसे उठाने जाती है। जैसे ही भारती का हाथ उस माला को स्पर्श करता है, उसके कंठ से एक तीव्र चित्कार निकल जाती है, और भारती बेहोश हो जाती है। तभी वेदाचार्य साधना कक्ष से कुछ तिलिस्मी यंत्र लाते हैं, जिनसे ऊर्जा किरणे निकलकर भारती की ओर बढ़ती हैं और भारती को होश आ जाता है।

वेदाचार्य- "अब तुम ठीक तो हो न भारती?"

भारती- "हाँ दादाजी। पर इस माला से इतना घातक ऊर्जा वार कैसे हुआ, मुझे लगा जैसे मेरी नसें फटने लगी है, और मेरे शरीर का सारा रक्त उबलने लगा है, और मेरी नसें फाड़ कर बाहर निकल आएगा।"

वेदाचार्य- "भारती ये रूद्र-माला है जब मैं अपने गुरूजी से तिलिस्म ज्ञान प्राप्त कर रहा था तो उन्होंने हम सभी शिष्यों को इस रुद्रमाला के दर्शन कराये थे, उत्सुकतावश मैंने इसका स्पर्श किया और बेहोश हो गया, फिर गुरूजी मुझको होश में लाये। और मुझसे पुनः इस माला को स्पर्श करने को कहा। मैं डर गया और मैंने मना कर दिया। तब गुरूजी ने मुझे आदेश दिया की मैं पुनः इस माला को स्पर्श करूँ तो मैंने उस माला को स्पर्श किया और मुझे झटका नहीं लगा। तब गुरूजी ने मुझे ये माला प्रदान की और कहा की वेदाचार्य यह माला हम शैव तंत्र ज्ञाताओं की अमूल्य निधि है जो मैं तुम्हे सौंप रहा हूँ। इसमें महादेव के रुद्रावतार की शक्तियों के अंश हैं, और एक दिन तुम्हे भी ये माला इसके योग्य धारक को देनी होगी यही हमारी परंपरा है।"

भारती- "परंतु दादाजी तंत्र और तिलिस्म का कैसा मेल?

वेदाचार्य- "भारती मेरे गुरु तंत्र और तिलिस्म के महाज्ञाता थे, मैंने उनसे तिलिस्म का ज्ञान प्राप्त किया, क्योंकि हमारी वंशावली में तिलिस्म साधना का प्रागैतिहासिक इतिहास रहा है।मुझे भी तिलिस्म की प्रारंभिक जानकारी अपने दादाजी और पिताजी से ही प्राप्त हुयी थी। और ये तंत्र-माला अक्षय तंत्र ऊर्जा का स्त्रोत है, जिसे गुरूजी ने मुझे प्रदान किया और कहा की ये एक महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारे पास थी, अब उस उद्देश्य की पूर्ति तुम्हारे हाथ में है। और मैंने सहर्ष यह माला स्वीकार कर ली।

भारती- "अच्छा दादाजी तो ये रूद्र माला एक प्रबल तंत्रऊर्जा स्त्रोत है, अब बताइये दादाजी की आप साधना में चीखे क्यों?"

वेदाचार्य- "भारती आज मुझे साधना में एक अद्भुत परालौकिक शक्ति का आभास हुआ, इतनी अद्भुत शक्ति इस पृथ्वी की नहीं हो सकती।"

भारती- "दादाजी मुझे पूर्ण विश्वाश है की ऊर्जा कितनी ही प्रबल क्यों न हो ऊर्जा-नियमों के अंतर्गत ही कार्य करेगी। हर ऊर्जा की एक काट होती है, और मुझे विश्वाश है कि हम इस ऊर्जा की काट भी खोज निकालेंगे।"

वेदाचार्य- "मैं जानता हूँ भारती, परंतु तुम उस ऊर्जा की प्रबलता से अभी अनभिज्ञ हो।"

भारती- "क्या मतलब दादाजी?"

वेदाचार्य- "भारती जब मुझे साधना में उस ऊर्जा का आभास हुआ तो मैंने उसका पीछा किया, परंतु जैसे ही मैं उसके समीप गया मुझे एक तीव्र झटका लगा। और मेरी साधना भंग हो गयी। भारती वह ऊर्जा इतनी प्रबल थी की मेरे जैसे 10 वेदाचार्यों की तिलिस्म ऊर्जा भी कम पड जाये।"


भारती- "अगर ऐसी बात है तो दादाजी हमें शीघ्र ही उस ऊर्जा की जानकारी लेनी होगी।"

वेदाचार्य- "भारती समस्या मात्र वह ऊर्जा नहीं है, अपितु संकट यह है कि वह ऊर्जा नागद्वीप की ओर अग्रसर है, अवश्य नागद्वीप और उसके आस्तित्व का सम्बन्ध उस ऊर्जा से है।"


भारती- "दादाजी अगर यह सब नागद्वीप से सम्बंधित है तो अवश्य ही नागराज से भी इसका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सम्बन्ध होगा।"


वेदाचार्य- "सत्य कहा भारती, अवश्य ही इस ऊर्जा का नागद्वीप और नागराज से गहरा सम्बन्ध है, तुम शीघ्रातिशीघ्र अपनी तैयारी करो, और नागराज को इसके बारे में जानकारी दो। तब तक मैं नागद्वीप जाकर महात्मा कालदूत से इस सम्बन्ध में चर्चा करता हूँ, आखिर नागद्वीप वासियों को भी इस खतरे से आगाह करना होगा।"


भारती- "जी दादाजी, मैं भी नागराज को शीघ्र ही सारा माजरा समझाती हूँ।"


इतना सुनकर वेदाचार्य वहां से पुनः अपने कक्ष में चले जाते हैं, और भारती अपने गुप्त कक्ष में जाकर फेसलेस के रूप में इस समस्या से निपटने के लिए तैयार होती है।

अपने गुप्त कक्ष में-

भारती- (दादाजी का आभास कभी गलत नहीं होता पिछली बार जब उन्हें पराशक्तियों का आभास हुआ था तो हमारे सामने नेगेटिव्स* के खतरे का सामना करना पड़ा था और इस बार पुनः दादाजी के अनुसार नागराज और नागद्वीप के आस्तित्व को खतरा है, संकट बहुत बड़ा है मुझे नागराज को खबर करनी होगी।)


*नेगेटिव्स- नागराज, ध्रुव, डोगा, परमाणु और तिरंगा का एक हाहाकारी कॉमिक्स, शीघ्र ही राज कॉमिक्स की वेबसाइट से खरीदें।

स्थान- नागद्वीप

कुक्षि- (तो वर्तमान युग में विषधरों का शक्तिकेंद्र यह द्वीप है जिसे "नागद्वीप" के नाम से जाना जाता है। यहाँ का इतिहास जानने तक और वर्तमान युग की समस्त शक्तियों की जानकारी लेने तक मुझे अपनी ऊर्जा को अन्तर्निहित करना होगा, और पहले इस द्वीप के साथ कालदूत की शक्तियों का भान भी लेना होगा, अवश्य ही उसने अपनी शक्तियों को परिष्कृत कर लिया होगा।और कालजयी के उस सृजन नागराज के संकेत मिलना बंद हो गए हैं, अर्थात वह नागद्वीप पर नहीं है, अगर वह नागद्वीप पर नहीं है तो कहाँ होगा?
वैसे भी मैं उसे तो ढूंढ ही लूंगा, परंतु मुझे पहले इस शक्तिकेंद्र का विनाश निश्चित करना होगा। और इसके लिए मुझे नागसाम्राज्य के शत्रुओं को वश में करके एकत्रित करना होगा।)

और कुक्षि एक नाग का वेश बना कर नागद्वीप में चला जाता है।

कुक्षि- "अच्छा तो ये भयावह वनक्षेत्र नागद्वीप की परिसीमा से लगा हुआ है। यहीं मैं नागद्वीप के शत्रुओं को एकत्रित करूँगा और आगे की योजना बनाऊंगा। अभी तक मिली जानकारी के अनुसार नागद्वीप के प्रबल शत्रुओं में नगीना और विषंधर प्रमुख हैं और इसके साथ इन्हें नागद्वीप की भौगोलिक और राजनितिक संरचना का ज्ञान भी भली-भांति है। मुझे इन दोनों को यहाँ बुलाना पड़ेगा।"

और कुक्षि अपनी ऊर्जा के द्वारा नगीना और विषंधर को उस वन में टेलीपोर्ट कर लेता है।

नगीना- "उफ़ ये क्या हुआ और कैसे हुआ? मैं तो अपने गुप्त केंद्र में तंत्रसाधना में व्यस्त थी, किस ऊर्जा ने मुझे यहाँ अपनी ऊर्जा से स्थानांतरित किया है?"


विषंधर- "यही प्रश्न मेरे हैं नगीना, ध्यान से देखो ये वनक्षेत्र नागद्वीप का समीपवर्ती वन है।"

नगीना- " सत्य कहा विषंधर, और कालदूत के अलावा और किसी में इतनी प्रबल ऊर्जा नहीं जो हमें यहाँ स्थानांतरित कर सके।"

विषंधर- "इसका तात्पर्य यथाशीघ्र यहाँ से भागने में ही भलाई है।"

और विषंधर भागने लगता है, तभी एक ऊर्जा वार उसे लगता है और अपनी जगह पर ही जड़वत हो जाता है।

कुक्षि- "रुको कायरों की सेना के महाधिपति। तुम्हारी यही कायरता आज तक की तुम्हारी पराजयों का मुख्य कारण रही है।"

विसर्पी- "कौन हो तुम और हमें यहाँ क्यों लाये हो?"

कुक्षि- "मेरे पास तुम जैसे तुच्छ प्राणियो के प्रश्नो के उत्तर देने का समय नहीं है। मुझे तुम्हारी बागडोर अपने हाथों में लेनी ही होगी।"

और अगले ही क्षण कुक्षि के ऊर्जा वार नगीना और विषंधर को लगते हैं और वो चेतना शून्य होकर भूमि पर गिर जाते हैं।

कुक्षि- "अब तुम्हारे शरीर और आत्मा का अधिपति कुक्षि है। अब तुम्हारा सारा ज्ञान और शक्ति मेरे मष्तिष्क से जुड़ चुकी है। खड़े हो जाओ मेरे सेनापतियों, और स्वयं को एक महायुद्ध के लिए प्रस्तुत करो।"

और नगीना तथा विषंधर कुक्षि के इन शब्दों को सुनकर खड़े हो जाते हैं, और

नगीना-विषंधर- "अवश्य विषश्रेष्ठ। हम आपके आदेश की प्रतीक्षा में हैं।"

कुक्षि- "उत्तम। तुम दोनों से मिली जानकारी के अनुसार जो योजना हमने बनायीं है वो इस प्रकर हैं।"

और कुक्षि अपनी योजना बताता चला गया।

नगीना- "उत्तम विषावतार। परंतु मेरा एक अनुरोध है।"

कुक्षि- "कहो नगीना।"

नगीना- "शक्तिकेंद्र के सर्वनाश तक नागराज को नागद्वीप से बाहर रखना ही श्रेष्ठकर होगा विषावतार।"

कुक्षि- "नगीना हम स्वयं नागराज के आस्तित्व की समाप्ती को आतुर हैं, परंतु अगर उसका सर्वनाश नागद्वीप पर हुआ तो पृथ्वीवासी उसके अंत से अनभिज्ञ रह जायेंगे। हम भी यही चाहते हैं की नागराज का अंत महानगर में ही हो। और इस कार्य का संपादन करेगा हमारी सेना का एक सेनापति

                 "दुर्दल"

कुक्षि के इतना कहते ही उसके शरीर से भयावह आकृति प्रथक होने लगती है और

दुर्दल- " विषावतार कुक्षि, सेनापति दुर्दल का प्रणाम स्वीकार करें।"

कुक्षि- "विजयी भव दुर्दल। तुम अपने कार्य से भलीभांति अवगत हो, शीघ्र ही महानगर की ओर प्रस्थान करो।"

दुर्दल- "जो आज्ञा महाराज।"

कुक्षि- "विजयी भव दुर्दल।"

और दुर्दल महानगर की ओर प्रस्थान कर जाता है। कुछ समय पश्चात कुक्षि भी एक नागचर (गुप्तचर) का रूप लेकर नगीना-विषंधर को कुछ समझा कर चला जाता है।

स्थान- नागद्वीप

महात्मा कालदूत के गुफा में-

कालदूत- "वेदाचार्य जी आखिर ऐसा कौन सा संकट आ गया जो आपको इतने विशेष रूप से सन्देश भेजा।"

वेदाचार्य- "अपनी योगऊर्जा से मुझे यहाँ बुलाने का धन्यवाद महात्मा। आज मुझे अपनी साधना में एक परालौकिक ऊर्जा का आभास हुआ था।"

और वेदाचार्य ने सारा घटनाक्रम महात्मा को सुना दिया।

कालदूत- " वेदाचार्य जी इस पृथ्वी पर अनेक परालौकिक शक्तियां समय-समय पर विचरण करती हैं, हो सकता है आपने भी किसी ऐसी ही ऊर्जा का आभास किया हो। परंतु उस ऊर्जा का इतना प्रबल होना और नागद्वीप की और बढ़ना कही नागद्वीप के आस्तित्व के लिए बड़ा संकट न हो।"

वेदाचार्य- "महात्मा इसीलिये तो मैंने आपको पहले सूचित करना उचित समझा, क्योंकि आप ही इस संकट से नागद्वीप की रक्षा कर सकते हैं।"

कालदूत- "धन्यवाद वेदाचार्य जी। हम भी आपसे निवेदन करते हैं की आप भी इस संकट के समाधान तक नागद्वीप में ही रहें।"

वेदाचार्य- "अवश्य महात्मन्। वैसे भी अगर संकट के बादल नागद्वीप पर मंडरा रहे हैं तो महानगर और पृथ्वी भी इस से प्रथक नहीं है।"

कालदूत- "आपका कथन सही है वेदाचार्य, तब तक मैं भी उस ऊर्जा के विषय में जानकारी एकत्रित करता हूँ।"

इतना कहकर कालदूत नागद्वीप के "काल मंदिर" में जाकर ध्यान करते हैं, ध्यान के कुछ समय पश्चात-

कालदूत- "नहीं-नहीं। ये नहीं हो सकता, वह पुनः स्वतंत्र नहीं हो सकता। मुझे शीघ्र ही देव कालजयी को इस घटना से अवगत कराना होगा।"

कालदूत- "हे देव कालजयी, प्रकट हो। हे विषधरों में अग्रणि, महादेव रूद्र के हलाहल का साक्ष्य रूप, देव कालजयी आपका सेवक आपका आह्वाहन करता है।"

तभी देव कालजयी के मंदिर से तीव्र प्रकाश प्रस्फुटित होता है और देव कालजयी प्रकट होते हैं।

कालजयी- "कहिये नाग-पुरोधा महात्मा कालदूत।"

कालदूत- "हे देव कालजयी, आपके चरणों में मेरा कोटि-कोटि अभिवादन स्वीकार करें।"

कालजयी- "आयुष्मान भव। महात्मा कालदूत एक भक्त के अपने स्वामी को पुकारने में जो आर्तभाव अंतर्मन से प्रस्फुटित होता है, हम सदैव ही आपके आह्वाहन में उसका अनुभव करते हैं। परंतु आज आपके स्वर में हमें भय की भी अनुभूति हुयी, महात्मन्।"

कालदूत- "देव। आप तो स्वयं विषधरों के प्रधान रक्षक हैं। इस समस्त विश्व में विषधारकों से सम्बंधित कोई भी ऐसी घटना नहीं है जिससे आप अनभिज्ञ हों। आप अवश्य ही मेरे भयभीत होने का कारण जानते हैं।"

कालजयी- "महात्मन्, सही शब्दों में अपनी शंका कहें।"

कालदूत- "हे देव। आज हमें वेदाचार्य जी के द्वारा एक परालौकिक शक्ति के आभास का समाचार प्राप्त हुआ, जो नागद्वीप की और अग्रसर थी। जब हमने अपने ध्यान में उस शक्ति का पता लगाने का प्रयत्न किया तो...."


कालजयी- (कालदूत की बात बीच में से ही काटते हुए) " तो आपको 'विषपुत्र' की शक्ति का आभास हुआ, क्यों महात्मा??"

कालदूत- "आप तो सर्वज्ञ हैं देव, आपसे कुछ भी छुपा नहीं है।"

कालजयी- "महात्मा, तिलिस्म के महाज्ञाता वेदाचार्य का संशय मात्र कोरी कल्पना नहीं है, इस पृथ्वी के भविष्य पर कुक्षि नामक संकट फन फैला रहा है, वास्तविकता में अब नागद्वीप और आपका आस्तित्व संकट में है।"

कालदूत- "हे देव कालजयी, रक्षा करें। आप तो कुक्षि की विकराल शक्तियों से परिचित हैं, और सिर्फ हम कुक्षि की शक्तियों का सामना अधिक समय तक नहीं कर सकते।"

कालजयी- "आपने सत्य कहा महात्मन्, परंतु कुक्षि का संकट देव मर्यादा से बाहर है, और अभी यह संकट पृथ्वी और उसके महानायकों के कार्यक्षेत्र में आता है, और आप तो इस तथ्य से सुपरिचित हैं ही कि हमारी शक्तियां कुक्षि पर सार्थक नहीं होंगी।
और कुक्षि ने भी महादेव से आग्रह किया है की देवशक्ति उसके कार्य से दूर रहें।"


कालदूत- "हे विषधरों में श्रेष्ठ। अब किस प्रकार हम नागद्वीपवासी कुक्षि का सामना करेंगे?"

कालजयी- " महात्मन् आपकी संयुक्त संधि शक्ति सदैव आपके साथ है, आपके साथ नागराज जैसा महायोद्धा हैं, और निश्चित ही ये नागयोद्धाओं के जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा है, हमारा आशीर्वाद सदैव आप सभी के साथ है।"

कालदूत- "सत्य कहा देव। वह पराक्रम ही क्या जिसे रणक्षेत्र में शत्रु के समक्ष प्रस्तुत न किया जाये, हम आपको विश्वाश दिलाते हैं की नागयोद्धा इस संकट से शीघ्र ही विजयी होकर दिखलायेंगे।"

कालजयी- "तथास्तु वत्स। विजयी भव।"

और देव कालजयी वहां से अदृश्य हो जाते हैं।

कालदूत- (अब हमें अपने जीवन के सबसे बड़े युद्ध के लिये स्वयं को और नागद्वीप के योद्धाओं को प्रस्तुत करना है, यथाशीघ्र ही हमें कुमारी विसर्पी और नागराज को समाचार देना होगा।)

इतने घटनाक्रम के पश्चात कालदूत, कालमंदिर से बाहर आते हैं, और वेदाचार्य को लेकर कुमारी विसर्पी की ओर अग्रसर होते हैं।

कुमारी विसर्पी का महल-

विसर्पी- "भ्राता विषांक, रुकिए इस प्रकार अपनी बहन को सताना उचित नहीं है कुमार। हम आपका पीछा करते-करते थक गए हैं। हम आपसे आग्रह करते हैं की आप भोजन ग्रहण कर लीजिये।"

विषांक- "हा हा हा। जिस सम्राज्ञी विसर्पी के आगे बड़े-बड़े नागयोद्धा करबद्ध खड़े होते हैं, जिसके राजदंड की आज्ञा की अवहेलना कोई भी नागशक्ति नहीं कर सकती, आज वह एक छोटे से खेल में एक छोटे से बालक से परास्त हो गयी। आश्चर्य है।"

विसर्पी- "कुमार, हमारी एक ही इच्छा है कि हम सदैव आपको विजयी होते हुए देखें, हम आपको विश्व के सर्वश्रेष्ठ नागयोद्धा के रूप में देखना चाहते हैं। और इसके लिए आपको शक्ति की आवश्यकता होगी, जो आपको भोजन से ही मिलेगी।"

विषांक- "दीदी, हम आपको आश्वासन दिलाते हैं की हम अपने अभ्यास समय को बड़ा देंगे, परंतु अभी आप हमारे साथ खेलिए न। हमें आपके साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है।"

विसर्पी- "हमें भी आपके साथ खेलना अतिप्रिय है कुमार, परंतु इस नागद्वीप की राजकुमारी होने के कारण हमारे कुछ उत्तरदायित्व भी है, जिनका निर्वहन करना हमारा प्रथम कर्तव्य है।"

तभी कक्ष में महात्मा कालदूत, वेदाचार्य के साथ प्रवेश करते हैं।

कालदूत- "सत्य कहा सम्राज्ञी, नागद्वीप की सम्राज्ञी होने के नाते आपके कुछ उत्तरदायित्व हैं, जिनका निर्वहन आपका प्रधान कर्तव्य है।

विसर्पी-विषांक- "प्रणाम महात्मा कालदूत, प्रणाम दादाजी।"

वेदाचार्य- "प्रणाम तो मुझे करना चाहिए कुमारी।"

कालदूत- "वेदाचार्य जी मेल-मिलाप की बातों में समय देने के लिए समय नहीं है हमारे पास।"

विसर्पी- "आपकी भाषा में संशय का प्रादुर्भाव हो रहा है महात्मन्?"

कालदूत- "सत्य कहा राजकुमारी।"

कालदूत और वेदाचार्य सारा घटनाक्रम कुमारी को सुनाते चले जाते हैं। सबकुछ सुनने के बाद।

विसर्पी- "महात्मन् अवश्य ही ये संकट गहन है, नागद्वीप के नभ में विकराल संकटों के बादल बाधाओं की बाणवर्षा को तत्पर हैं।"

विषांक- "महात्मन् मेरी आयु अभी अल्प है, परंतु मैं आपको विश्वाश दिलाता हूँ की इस संकटरूपी दावानल की ज्वाला को क्षीण करने हेतु राजकुमार विषांक के रक्त की एक-एक बूँद समर्पित है।"

कालदूत- "उत्तम कुमार, आपके शब्दों ने हमारे बूढ़े शरीर में जोश और उत्साह का संचार कर दिया है।"

वेदाचार्य- "परंतु महात्मन्, मेरा एक अनुरोध है।"

विसर्पी- "कहिये दादाजी।"

वेदाचार्य- "मेरे मतानुसार इस युद्ध में कुमारी विसर्पी प्रत्यक्ष रूप से भाग न लें, अपितु महात्मा कालदूत नागसेना के प्रधान-सेनापती के उत्तरदायित्व का निर्वहन करें।"

कालदूत और विषांक के कुछ कह पाने से पूर्व ही,

विसर्पी- "क्षमा दादाजी। हम आपके विचारों का यथोचित् सम्मान करते हैं, परंतु इस आपात समय में हमें नागसाम्राज्ञी होने के नाते प्रस्तुत होना ही पड़ेगा।"

कालदूत- "कुमारी हम वेदाचार्य जी के मत से संतुष्ट है, हमारा आपसे निवेदन है की आप परोक्ष रूप से ही युद्ध में भाग लेवें।"

विसर्पी- "ठीक है महात्मन्, परंतु जब भी हमें लगेगा हम इस युद्ध में आ जायेंगे।"

कालदूत- "अवश्य कुमारी।"

तभी एक नागचर (गुप्तचर) भागते हुए आता है।

नागचर- "सम्राज्ञी......सम्राज्ञी।।


विसर्पी- "क्या हुआ नागचर? क्या बात है? तुम इतने भयभीत क्यों लग रहे हो?"

नागचर- "इस प्रकार आपकी परिचर्चा के मध्य आने के लिए क्षमा सम्राज्ञी। परंतु सूचना अतिआवश्यक है।"

वेदाचार्य- "शीघ्र कहो नागचर मुझे गहन संकट का आभास हो रहा है।"

नागचर- "आपका आभास उचित है वृद्धवर्।"

कालदूत- "यूँ अपने शब्द कौशल का परिचय देने से श्रेष्ठ है की तुम शीघ्र मुख्य बिंदु कहो।"

नागचर- "क्षमा महात्मन्, परंतु नाग-कारावास से मिली सूचना के अनुसार सभी नागबंदी अदृश्य हो गए हैं।"

विसर्पी- "क्या???????"

विषांक- "ये असंभव है।"

कालदूत- "हे देव कालजयी, ये कैसे संभव हुआ?"

वेदाचार्य- "हे ईश्वर मतलब हमारे पास समय नहीं है।"

कालदूत- " सत्य कहा वेदाचार्य जी। अब हमारे पास बिलकुल भी समय नहीं है। नागचर शीघ्र ही पंचनाग और समस्त नागसेनापतियों और नागजातियों के प्रधान नागयोद्धाओं को आपात संकेत भेजो।"

पंचनाग- "आवश्यकता नहीं है महात्मन्, हम पूर्व में ही संकेत भेज चुके हैं।"


सभी एक साथ - "पंचनाग और समस्त नागसेनापति।"

पंचनाग- "प्रणाम सम्राज्ञी, प्रणाम महात्मा, प्रणाम दादा वेदाचार्य।"

कालदूत- "प्रणाम नागवीरों, परंतु आप सभी को कैसे ज्ञात हुआ?"

नागार्जुन- "नागबंदियों के स्वतंत्र होने का समाचार वन की आग की तरह फ़ैल गया है महात्मा। इसलिए हमने नागचर को आपके पास भेजने के साथ ही समस्त नागयोद्धाओं को समाचार भेज दिया था।"

तभी वहां नागु प्रकट होता है।

नागु- "ओये मैं तो मणिशक्ति से विषांक ब्रो के रूम में आने को निकला था। ये तो नागद्वीप का प्ले ग्राउंड लग रहा है, ओये पंचनाग! तुस्सी ते ठाँ-ठाँ लग रे हो।"

विसर्पी- "नागु तुम यहाँ?"

नागु- "प्रणाम महारानी। मैं तो ब्रो के रूम में आने को निकला था, पर यहाँ सभी इकठ्ठा क्यों है? लगता है ipl का फाइनल देखने आये हैं। ओये गुरु ठोको ताली।"

विषांक- "ये हमारा ही कक्ष है नागु, और अभी नागद्वीप पर एक बहुत बड़ा संकट आ गया है, जिसके मंथन हेतु हम सभी यहाँ एकत्रित है।"


कालदूत- "इसे ये बात समझ में नहीं आएगी। कुमार आप इसे दूसरे कक्ष में ले जाओ। हमारे पास इसके अनर्गल प्रलाप को सुनने का समय नहीं है।"

और विषांक नागु को लेकर चला जाता है।

कालदूत- "चलिए नागवीरों हमें इस संकट के बारे में विचार करना चाहिए।"

सिंहनाग- "अवश्य महात्मन्।"

वेदाचार्य- "पर उसके पूर्व महात्मा आप योगऊर्जा से नागराज को भी यहाँ बुला लीजिये।"

कालदूत- "सत्य कहा वेदाचार्य जी।"

महात्मा कालदूत वहीँ मध्य में बैठ कर ध्यान में जाते हैं और शीघ्र ही पुनः उठ जाते हैं।

नागार्जुन- "क्या हुआ महात्मन्?"

कालदूत- "कोई तीव्र ऊर्जा हमें नागराज के पास जाने से रोक रही है, हमारी योग ऊर्जा महानगर के परिक्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पा रही है।"

वेदाचार्य- "महात्मन्, हमने फेसलेस को नागराज को सूचना देने के लिए कह दिया है, आप निश्चिन्त रहिए नागराज स्वयं ही यहाँ पहुँच जायेगा।"

कालदूत- "उत्तम महात्मन्!"

तभी बाहर से एक नाग भागते हुए प्रवेश करता है।

नागकंट- "महात्मा, शीघ्र चलिए बहुत बड़ी विपत्ति हमारी और बढ़ रही है।

कालदूत- "अब क्या हुआ नागकंट?"

नागकंट- "महात्मा नागकारावास से भागे हुए बंदियों ने तांत्रिका नगीना और और विषंधर के नेतृत्व में एक साथ आक्रमण कर दिया है, नगीना ने नागद्वीप के पूर्व भाग पर और विषंधर ने उत्तर भाग पर आक्रमण किया है।"

नागप्रेति- "असंभव उत्तर भाग में तो नागद्वीप का शस्त्रागार है।"

नागदेव- "और पूर्व भाग में राजमंदिर है। जहाँ नागद्वीप की समस्त इच्छाधारी शक्तियों का संगमस्थल है जो हमें नागलोक से मिलने वाली शक्तियां प्रदान करता है।"

कालदूत- "आपका संशय उचित है पंचनाग।"

वेदाचार्य- "महात्मा अब शीघ्र ही युद्धव्यूह की रचना बताइये। हमारे पास समय नहीं है।"

कालदूत- "पंचनाग आप और समस्त नागयोद्धा उत्तर भाग में जाकर विषंधर से आयुधक्षेत्र का रक्षण करेंगे। हम स्वयं नागद्वीप के कुछ सैनिकों को और वेदाचार्य जी को लेकर नगीना का प्रतिकार करते हैं।"

पंचनाग- "उत्तम योजना महात्मा। हम अभी आयुधक्षेत्र की ओर प्रस्थान करते हैं।"


पंचनाग और समस्त नागसेनापतियों के जाने के पश्चात


वेदाचार्य- "ठहरिये महात्मा। हम आपके साथ युद्धभूमि में नहीं चल सकते।"

कालदूत- "क्यों वेदाचार्य जी?"

वेदाचार्य- "मेरे अनुसार पहले मुझे राजकुमारी विसर्पी और कुमार विषांक की सुरक्षा का पर्याप्त प्रबंध करना होगा।"

कालदूत- "अर्थात????"


वेदाचार्य- "अर्थात् महात्मन्। मुझे राजनिवास के आस-पास एक तिलिस्म का निर्माण करना होगा जिससे राजपरिवार की सुरक्षा सुदृढ़ हो सके।"

कालदूत- "अतिउत्तम वेदाचार्य जी। आप एक कुशल रणनीतिकार हैं। अब हमें प्रस्थान करना चाहिए।"

वेदाचार्य- "अवश्य महात्मन्। शीघ्र ही आपसे रणभूमि में मुलाकात होगी। हर हर महादेव।"

कालदूत- (हे देव कालजयी! पहले कुक्षि का संकट, और अब ये नगीना और विषंधर। हे मेरे ईश्वर नागद्वीप की रक्षा करने का सामर्थ्य देना।)

और कालदूत राजमहल से बाहर चले जाते हैं।


नागचर- (हा हा हा। कालदूत को अभी भी ये आभास नहीं है कि कुक्षि स्वयं उसके सम्मुख खड़ा है, और नागराज तक अब कोई संकेत भी नहीं पहुँच पायेगा।अब समय आ गया है नागराज के अंत का। कालजयी के सृजन के सर्वनाश का)


राजकुमारी विसर्पी का कक्ष-

विसर्पी, विषांक और नागु बैठे हुए हैं।

नागु- "क्षमा कुमारी, मैं तो बस कुमार विषांक के लिए नयी मूवीज की डीवीडी लेकर आया था वो ओरिजिनल नो पायरेटेड।"

विसर्पी- "नागु अब तो तुम इस भयावह परिस्थिति से अवगत हो गए हो अब यथाशीघ्र ही नागराज को लेकर आओ।"

नागु- "उसमे क्या आपत्ति है कुमारी, मैं अभी नागराज को मानसिक सन्देश भेज कर यहाँ की परिस्थितियों से अवगत करता हूँ।"

और नागु नागराज से संपर्क करने का प्रयत्न करता है और उसकी चीख निकल जाती है।

नागु- "आअह्ह। असंभवव्।"

विषांक- "क्या हुआ नागु? तुम ठीक तो हो न?"

नागु- "yes ब्रो। पर कोई ऊर्जा मेरी शक्तियों को नागद्वीप से बाहर जाने से रोक रही है। मैं नागराज से संपर्क नहीं कर पा रहा हूँ।"

विसर्पी- "अब हमें ही कुछ करना होगा। हम इस परिस्थिति में हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकते।"

नागु- "रुकिए कुमारी, अभी आपका जाना उचित नहीं है। समस्या की विकरालता ने हमें कुछ विन्दुओं पर सोचने का अवसर ही नहीं दिया है।"

विषांक- "मतलब नागु भैया?"

नागु-"वो मैं बाद में समझाऊंगा ब्रो। अभी हमें जाना होगा। कुमारी हमें आज्ञा दें।"

विसर्पी- "पर...."

नागु- "कुमारी मैं आपको ब्रो की सुरक्षा का वचन देता हूँ।"

विसर्पी- "ठीक है नागु। विजयी भव।"

और नागु तथा विषांक वहां से चले जाते हैं।

क्रमशः...........

कृपया अपना रिव्यु अवश्य दें।

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